अपने ही शुरू किये धार्मिक खूनी खेल को बीजेपी अब रोकने में असमर्थ है





आज देश जातिवाद और धार्मिक नफरतों की आग में जल रहा है. खूनी भीड़ लगातार लाशें बिछा रही है. यदि ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब भारत भी सीरिया बन जाएगा. और इसके जिम्मेदार वो कथित हिन्दुत्वादी संगठन होंगे जिन्हें भारतीय जनता पार्टी ने पाल पोस कर बड़ा किया है. हिन्दु-मुस्लिम और धार्मिक तुष्टिकरण के बल पर सत्ता पाने वाली बीजेपी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि वोट बैंक के लिए देश में जिस धार्मिक नफरतों को वो बढ़ावा दे रही है आज सत्ता पाने के बाद वो नफरत जब हिंसा और आतंक बन गई तो खुद पीएम नरेंद्र मोदी से लेकर बीजेपी के बड़े बड़े दिग्गज नेता उसे रोक पाने में असमर्थ दिख रहे हैं. देश में समाज के एक तबके को टार्गेट कर बेतहाशा लाशें बिछाई जा रही हैं. अभी वो तबका केवल सब्र किए जा रहा है. भारतीय न्यायपालिका पर उसका भरोसा है. स्थिति तब बत्तर हो जाएगी जब उस तबके के सब्र का बांध टूट जाएगा. सरकारें अपने निजी फायदों के लिए देश में ऐसी स्थिति बनाते चली जा रही हैं जिसके परिणाम बहुत ही भयानक होंगे.





कहावत है, जब पेड़ लगाए बबूल के तो फूल कहां से पाये. आज भारतीय जनता पार्टी के लिए यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठ रही है. धार्मिक तुष्टिकरण के बल पर सत्ता हासिल करने वाली बीजेपी पार्टी के समर्थक और बड़े नेताओं की तरह अपना भी चेहरा चमकाने में लगे छुटभैया नेता आज पार्टी के लिए सिरदर्द बनते जा रहे हैं. सत्ता पाने के लिए बीजेपी की शुरू की गई धार्मिक हिंसा और आतंक आज खुद बीजेपी के दिग्गज नेता नहीं रोक पा रहे हैं. दलितों पर गौरक्षकों का आतंक और सहारनपुर हिंसा के बाद बीजेपी से मुंह फेरते दलित वर्ग को फिर से झांसे में लेने के लिए बीजेपी की ओर से दलित वर्ग के रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति उम्मीदवार तक बनाना पड़ा. आने वाले 2019 को लोकसभा चुनाव में बहुसंख्यकों का वोट बटोरने के लिए फिर से दलित कार्ड खेला गया.



वहीं, 2013 से लेकर आने वाले साल 2019 तक 90 फीसदी मीडिया भी बीजेपी के कब्जे में रहेगी. क्योंकि आज देश में जो धार्मिक हिंसा का स्तर है उसमें नैशनल लेवल के कई चैनल से लेकर अखबार काफी हद तक भागीदार है. ऐसे में बीजेपी के फण्ड से चलने वाले कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ रहे कथित रीजनल चैनल और डिजिटल मीडिया भी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं. इन बीजेपी कंट्रोल्ड मीडिया का काम खबरों को फेरबदल कर पब्लिक को भ्रमित करना है. वास्तिविक स्थिति से लोगों को दूर रखना और चैनल व सोशल मीडिया पर जहर उगलना है. जिससे सरकार की नाकामियों पर परदा डाला जा सके और इस ओर भूले से किसी व्यक्ति का ध्यान न जाए, इसके लिए खास ख्याल कर धार्मिक मुद्दों में लोगों को फंसाया जा रहा है. जिसमें तीन तलाक, लव जिहाद, कब्रिस्तान-शमशान जैसे मुद्दे काफी चर्चित रहे. हालांकि मीडिया का काम ऐसे मुद्दों को तूल देना नहीं होता. इसके बावजूद 60 फीसदी टीवी चैनलों पर महीनों तक इन व्यर्थ के मुद्दों पर डिबेट होती रही और आज भी जारी है. इसी बीच इन 60 फीसदी चैनलों ने सरकार की नाकामियों को जनता से भरपूर छुपाया.



कहने को बीजेपी में शिया मुस्लिम मुख्तार अब्बास नकवी, मोहसिन रज़ा, शहनवाज हुसैन और दलित वर्ग के लिए सबसे बड़ा चेहरा रामनाथ कोविंद हैं. जिनको सामने लाकर बीजेपी ‘‘सबका साथ, सबका विकास’’ की बात करती है. लेकिन जब मुस्लिम वर्ग और दलित वर्ग पर बीजेपी समर्थक दलों के हमले होते हैं तब इनमें से कोई चेहरा सामने नहीं आता. हमदर्दी के लिए भी नहीं. लेकिन इन चेहरों के दम पर वोट बैंक को बेहकाना पार्टी को बखूबी आता है. नोटबंदी से लोगों को दिक्कत हुई लेकिन सब संतुष्ट हैं, मीट बंदी से लोगों को दिक्कत हुई लेकिन सब संतुष्ट हैं, जीएसटी से कुछ को दिक्कत और कुछ को सहुलियत हुई लेकिन सब संतुष्ट हैं, देश में बेरोजगारी बढ़ी लेकिन सब संतुष्ट हैं, भ्रष्टाचार में भारत ऐशिया का सबसे देश बना लेकिन सब संतुष्ट हैं, बीजेपी शासन में सरहदों पर सबसे ज्यादा जवान शहीद हुए लेकिन सब संतुष्ट हैं, बीजेपी शासित राज्यों के बड़े बड़े घोटाले दबा दिए गए यह जानकर भी सब संतुष्ट हैं, आदिवासियों की जमीनांे पर कब्जे कर सरकार उद्योगपतियों को बेचती रही और आदिवासियों को नक्सली बता कर गोली मारती रही लेकिन सब संतुष्ट हैं. सब संतुष्ट हैं क्योंकि बीजेपी एक धर्म विशेष को अपना टार्गेट बना कर चल रही थी. उस धर्म विशेष के बेकसूर लोगों की हत्याएं हो रही थी. शुरूआत यूपी चुनाव के दौरान इखलाक नाम के बुजुर्ग से हुई. जिसके बाद बीजेपी को सत्ता मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई. इस चक्कर में बीजेपी कब दलित विरोधी बन गई पता ही नहीं चला. जिन दलितों ने बीजेपी के फैलाए जाल में फंस कर उसे अपनी हिमायती पार्टी समझा बाद में उन्हीं पर हिंसर प्रहार हुए. फल स्वरूप हार्दिक पटेल, कन्हैया, जिगनेश और चंद्रशेखर (रावण) जैसे बुद्धिजीवी प्रकाश में आये.


इन बुद्धिजीवियों ने दलित वर्ग को बीजेपी और सामंतवादी तकतों से खुद को अलग करने में प्रचार प्रसार किया. दलित बहुसंख्यकों का फायदा उठा कर सत्ता की मलाई खाने वाली सरकार से अपने लोगों को अवगत कराया. ऐसे बुद्धिजीवियों से डर कर बीजेपी ने उनका दमन करने की भरपूर कोशिश की. झूठे आरोपों में फसाने का प्रयास किया. भारत में केवल न्यायपालिका ही मात्र बची है जिस पर लोगों का भरोसा अब भी कायम है. यदि देश में न्यायपालिका न होती तो सरकारी तंत्र कब का निगल गया होता कन्हैया, जिगनेश, हार्दिक और चंद्रशेखर जैसे लोगों को. वर्तमान में संघर्ष जारी है. दलित वर्ग अपने शक्ति प्रदर्शन के साथ मैदान में उतर आया है. लेकिन अल्पसंख्यक अब भी सब्र की चादर ओढ़ कर अपने बेकसूर लोगों की बिछती लाशों का तमाशा देखे जा रहे हैं. बीच बीच में दलित-मुस्लिम एकता की भी बाते सामने आने लगी. हालांकि, दलित-मुस्लिम एकता मुस्लिम शासकों के शासन से ही मधुर रहे हैं. 90 के दशक में बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय से ही दलितों की नसों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर घोलने का काम बीजेपी, आरएसएस और कट्टर हिन्दुत्वादी संगठनों ने शुरू कर दिया था. धीरे धीरे कर इन 26 सालों में करीब 80 फीसदी दलितों को बहकाने में वे कामयाब रहें जिसका नतीजा 2013 का लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला. अब दलितों पर हमलों की वजह से वे बीजेपी का साथ तेजी से छोड़ रहे हैं. जो कि पार्टी के लिए गंभीरता का विषय है. इसलिए पार्टी ने देश भर में गौरक्षा, लव जिहाद जैसे तमाम खूनी मुद्दों को उठाकर दलितों को हिन्दुत्व के नाम पर अल्पसंख्यकों के लिखलाफ भड़काना शुरू किया.


आज देश में कुछ ही फीसदी लोग अपने दिमाग से चल रहे हैं. बाकी के दिमाग को सम्मोहित किया जा चुका है. उनके सम्मोहन को केवल उनके नेता या उनका आदर्श व्यक्ति ही तोड़ सकता है. जैसे कि चंद्रशेखर (रावण). आज देश को जरूरत है ऐसे कई और कन्हैया, जिगनेश, शैलजा, चंद्रशेखर, अभय दुबे, रविश कुमार जैसे लोगों की. भारत देश को बर्बाद होने से ऐसे ही लोगों का मार्गदर्शन बचा सकता है. ऐसे ही लोगों के विचारों से भारत में खून की नदियां बहने रूक सकती है.




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